तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ |
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि || 24||
तस्मात् इसलिए; शास्त्रम्-धार्मिक ग्रंथ; प्रमाणम्-प्रमाण; ते तुम्हारा; कार्य-कर्त्तव्य; अकार्य-निषिद्ध कर्म; व्यवस्थितौ निश्चित करने में; ज्ञात्वा-जानकर; शास्त्र धार्मिक ग्रंथ; विधान-विधि-विधान; उक्तम्-जैसा कहा गया; कर्म-कर्म; कर्तुम्-संपन्न करना; इह-इस संसार में; अर्हसि तुम्हें चाहिए।
BG 16.24: इसलिए कार्य और अकार्य का निश्चय करने के लिए शास्त्रों में वर्णित विधानों को स्वीकार करो और शास्त्रों के निर्देशों को समझो तथा तदनुसार संसार में अपने कर्तव्यों का पालन करो।
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अब श्रीकृष्ण इस अध्याय के उपदेशों का सार प्रस्तुत करते हैं। दैवीय और आसुरी प्रवृत्ति की तुलना करते हुए वे स्पष्ट करते हैं कि आसुरी प्रवृत्ति नारकीय जीवन की ओर ले जाती है। वे सिद्ध करते हैं कि शास्त्रों के विधि निषेधों का अनादर करके कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। अब वे यह कहते हैं कि किसी भी कर्म के औचित्य या अनौचित्य का ज्ञान वैदिक शास्त्रों द्वारा होता है।
कभी-कभी कुछ सज्जन लोग भी कहते हैं कि “मैं विधि-नियमों का पालन नहीं करता, मैं आपनी इच्छा के अनुसार कर्म करता हूँ।" मन का अनुसरण करना अच्छी बात है लेकिन वे यह कैसे सुनिश्चित करेंगे कि उनका मन उन्हें पथ-भ्रष्ट नहीं कर रहा है। कहा गया है-"नर्क का मार्ग शुभ विचारों से शुरू होता है।" इसका तात्पर्य यह है कि ऐसे अशुभ कर्म जो भ्रम के कारण मन को शुभ प्रतीत होते हैं, हमारे लिए नरक का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार शास्त्रों को ध्यान में रखते हुए हमें यह देखना चाहिए कि क्या हमारा अंत:करण वास्तव में उचित दिशा में जा रहा है। मनुस्मृति में भी उल्लेख किया गया है-
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात् प्रसिध्यति ।
(मनुस्मृति-12.97)
"भूत, वर्तमान और भविष्य से संबंधित किसी सिद्धांत की प्रामाणिकता वेदों पर ही आश्रित है।" इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को शास्त्रों को समझने और तदनुसार कर्म करने का उपदेश देते हुए अपने कथनों का समापन करते हैं।